कुछ बात अजब सी होती है बच्चों की मुस्कान में ।
उनकी अपनी ही दुनिया है , जहाँ कल्पित पात्र विचरते हैं-
इस दुनिया की सच्चाई से, सच्ची वो कल्पित दुनिया है ।
जहाँ कोई झूठा दम्भ नहीं, जहा कोई लोभ प्रपंच नहीं ।
बस अपने मन की करना है , बस अपने मन की सुनना है।
वहाँ कोई ऊँच और नीच नही , सब एक से हैं सब बालसखा ।
न ही भविष्य की चिंता है , न भूत से कोई शिकवा गिला ।
बस आज ही उनका सब कुछ है , और आज में ही वो जीते हैं।
न ही वो हँसी छुपाते हैं और न ही आंसू पीते हैं ।।
लेकिन हम उनकी दुनिया को अपनी दुनिया से मिलाने की,
हर संभव कोशिश करते हैं उनको अपना सा बनाने की।
उनको भी हम इस दुनिया की घुड़दौड़ में शामिल करने का ,
सारा प्रयास कर लेते हैं इस दौर में शामिल करने का ।।
शायद विचार के लायक है , ये एक ज्वलंत प्रश्न मेरा –
किस ओर को जाना है हमको , किस लक्ष्य की खातिर यह फेरा-
दिन रात लगाते हैं हम सब , किस बात ने हमको है घेरा ।
धरती पर आने का मकसद क्या केवल अर्थ कमाना है ?
या आपस मे यूँ लड़ भिड़ कर , मारना है और मर जाना है ।।
यह तथ्य विचारणीय होगा , किस ओर चले हैं हम मानव।
यह मार्ग प्रगति का है या फिर, हम आज चले बनने दानव ।।
“आशुतोष त्रिपाठी”