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“दरार”

#दरार #रिश्ते #अपेक्षाएँ

दरार ……!
दरार यूँ ही नहीं पड़ जाती है रिश्तों में !
ज़िम्मेदार होतीं हैं बेवजह की अपेक्षाएँ,आशाएँ,
जो हम थोप देते हैं औरों पर, अपनी इच्छाएँ ।
और देख लेते हैं दिवा स्वप्नों को –
हम बाँध देते हैं जिनसे चुपचाप अपनों को ।।
दरार यूँ ही नही पड़ जाती है रिश्तों में ,।
जब हम पाल लेते हैं मन में सैकड़ों शंकाएँ,
या फिर उलझ जाते हैं , अविश्वास की जड़ों में ।
भूल जाते हैं जब सारा प्रेम क्षणों में ।।
और देखने लगते हैं केवल बुराइयाँ, धीरे धीरे दूर हो जाती हैं सच्चाइयाँ ।
और रह जातें हैं फिर जलते हुए मन , व्यर्थ के जाल में उलझते हुए हम , स्वर्ग से घर को वीराना बना देते हैं ।
ख़ून के रिश्तों को बेगाना बना देते हैं, खून के रिश्तों को बेगाना बना देते हैं ।।
दरार …..

।। आशुतोष त्रिपाठी ।।

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