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हौसले भी कम नहीं थे..

हौसले भी कम नही थे, ना इरादों में कमी थी।
भूख से लेकिन लड़े, वो इतना ताकतवर नहीं था।


सर छुपाता भी कहाँ से, संगदिल तूफान में वो।
रास्ते में सौ महल थे, उसका अपना घर नहीं था।।

नींद में चलने की आदत, उसको थी शायद पुरानी।
पर वो थक कर सो गया हो, ऐसा कोई पल नहीं था।।

पावँ के छाले दिखाता भी, तो वो कैसे दिखाता ।
उनपे जो मरहम लगाए, ऐसा भी रहबर नहीं था ।।
आशुतोष त्रिपाठी !
“आशु”





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अनोखा शख़्स है….

अनोखा शख़्स है बस मुस्कुराता जा रहा है।
या फ़िर, ग़म को भुलाता जा रहा है …?

उसे होठों को सीना आ गया होगा ।
तभी तो ग़म उठाता जा रहा है ..!

हवा का रुख़ पता है उसको फिर भी।
वो क्यूँ मिट्टी उड़ाता जा रहा है…?

सुना है तैरना आता है उसको…!
मगर साहिल से क्यों घबरा रहा है..?

यक़ीनन वो बहोत तन्हा है फिर भी…
खुशी के गीत गाता जा रहा है …!!

मैं जब से गाँव वापस आ गया हूँ …
शहर फिर याद आता जा रहा है ..!!

आशुतोष त्रिपाठी.

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माँ

है स्वर्ग जो कहीं तो, कदमों में माँ है तेरे !
है जो कहीं तसल्ली, आँचल में माँ है तेरे !!

तूफ़ान से ग़मों के, जब भी मैं हार जाता ।
साया तेरा हर ग़म से, मुझको उबार लाता !

लाखों जतन किये हैं, माँ तूने मेरी ख़ातिर!
तुझ सा न और कोई, दुनियाँ में पाक नाता !!

गर है ख़ुदा जहाँ में, वो भी है तुझसे छोटा !
तू रूह में बसी है, वो तो है बस ज़ेहन में !!

जन्न्त तो नहीं देखी, पर ये मैं जानता हूँ ।
तेरी गोद को मैं, जन्न्त से बढ़ के मानता हूँ !

उम्र-ए-तमाम चल के अब, थक गया हूँ मैं माँ !
अब तो सुकूँ मिलेगा, आँचल में ही माँ तेरे !!

है स्वर्ग जो कहीं तो, कदमों में माँ है तेरे ..!!

आशुतोष त्रिपाठी
१०/०५/२०२०
मातृ दिवस

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मुक्तक ….

मेरी लिक्खी ग़ज़ल कोई, तुझे जब याद आएगी।
वो अपने साथ मेरी हर, कहानी गुनगुनायेगी . ।।
तेरे नैनों से झर- झर जो बहे, आँसू समझ लेना !!
कसक तेरे कलेजे की, मुझे भी तो रुलायेगी … !

वफ़ा की बात पर अक्सर, मैं तेरा नाम लेता हूँ!
कभी ये सोचना भी मत, तुझे इल्ज़ाम देता हूँ..!!
नसीबों में नहीं था, इश्क़ का परवान चढ़ जाना ।
यही सब सोच कर, आखिर में दिल को थाम लेता हूँ!!

कभी मेरा चले आना, कभी तेरा बुला लेना… !
निगाहों ही निगाहों में, तेरा सब कुछ बता देना.!!
मैं अब भी टूट जाता हूँ, कभी जब याद आता है।
मेरी खातिर, वो तेरा सैकड़ों तोहमत उठा लेना !

वो किस्से इश्क़ के अपने, जो अक्सर आम होते थे।
मेरे दिन रात जब अक्सर, तुम्हारे नाम होते थे.!
मैं बा-अफ़सोस, उन गलियों को, ख़ुद ही छोड़ आया हूँ।
जहाँ पौधों के पत्तों पर, हमारे नाम होते थे…..!!

“आशुतोष त्रिपाठी”

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नया वर्ष..

पिछले अनुभव से सीख के कुछ
अगले पल में कुछ नया करें ।

हम उन्नति को संकल्पित हो
कुछ सृजन यहां पर नया करें !

कुछ बीते पल से सीख के हम
अगले पल का निर्माण करें ‘!

अब नये वर्ष की बेला में
हम नयी प्रकृति में प्राण भरें ।

अब तक लेना ही सीखा है ,
कुछ देना भी अब सीखें हम !!

अब तक तो जीतना सीखा है
औरों को जिताना सीखे हम ।

इस कोमल वसुंधरा का भी
हम पर कुछ कर्ज निकलता है ।

माँ पिता और गुरुजन पर भी
अपना कुछ फर्ज निकलता है !

अब सबका कर्ज चुकायें हम
बस अपना फर्ज निभायें हम ।

मधुमय यह नया वर्ष होवे
सुखमय यह नया वर्ष होवे !!

”आशुतोष त्रिपाठी ”

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ऐसा माँ ही कर सकती है……..

कोई नज़्म लिखूँ! या गीत लिखूँ!या कोई कविता लिख जाऊँ?
अब तू ही बता मुझको ए दिल, कैसे मैं तुझको बहलाऊँ?

जाने कबसे मैं बैठा हूँ, इस बूढ़े बरगद के नीचे,
कुछ सोच रहा हूँ , या गुमसुम बस देख रहा आँखे मीचे।
खुलता ही नहीं कुछ आख़िर क्या, गड़बड़-झाला है अंतस में!
थोड़ा विमूढ़ – सा आखिर क्यूँ मैं बैठा हूँ मुट्ठी भींचे ?

हाँ याद आया! थोड़ा पहले एक नौजवान बेटे ने जब, माँ को यतीमखाने के दर पर रोता यूँ ही छोड़ दिया।
वो चला गया पीछे न मुड़ा, माँ रही देखती उसे, निरंतर ओझल होने तक अपलक ..!
फिर मैले आँचल से आँखों के गीले कोरों को पोंछा,
मन ही मन फिर आशीष दिया, अक्षम्य कार्य को क्षमा किया..
ऐसा माँ ही कर सकती है, आशीषों से भर सकती है!
चाहे सौ कष्ट पड़ें सहने, सौ बार उन्हें सह सकती है ऐसा माँ ही कर सकती है !!

“आशुतोष त्रिपाठी”

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फिर भी जिये जाते हैं..

जुर्म औरों पे नहीं, ख़ुद पे किये जाते हैं ।
रोज़ मरते हैं मगर , फिर भी जिये जाते हैं।।

आह भरते हैं मगर अश्क़ नहीं दिखते हैं।
वक़्त बे वक़्त उन्हें याद किये जाते हैं ।।

बेरुखी इसको कहें, या कहें उनकी आदत।
टूट के मिलते तो हैं, पल में बिखर जाते हैं।।

आईने जैसा है हर शख़्श, गौर से देखो … ।
सबकी आंखों में अपने अक्स नज़र आते हैं।।

बारहा मिलने से, रिश्ते नहीं कायम होते ।
पल में लोगों के खयालात बदल जाते हैं..।।

वो सुख़नवर है, उसपे प्यार बहोत आता है।
ये और… है कि उसे संगदिल बुलाते हैं…!!

“आशुतोष त्रिपाठी”

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Toota Foota Makan Hai To Sahi

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टूटा फूटा मकान है तो सही !!

टूटा फूटा मकान, है तो सही ।
अपने घर का गुमान है तो सही।।

रोशनी थोड़ी छन के आती है।
धुँधला सा रौशदान है तो सही !!

सब्र पे सब्र पिए जाता हूँ ।
हाथ में कोई जाम है तो सही !

ज़िल्द को खा चले हैं अब दीमक ।
बिखरे पन्ने तमाम हैं तो सही !

आज वो साथ नहीं है तो क्या !
उसके किस्से तमाम हैं तो सही !!

चलते जाते हैं, सफ़र खत्म नहीं होता है।
शुक्र है साथ कोई, राज़दान है तो सही !!
“आशुतोष त्रिपाठी”

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वक़्त को उस से कुछ गिला तो था

वक़्त को उस से कुछ गिला तो था,
वरना उस रोज़ वो मिला तो था ..!

लोग कहते हैं अब वो तन्हा है ..?
साथ मे उसके काफिला तो था ..!

शायद इसको ही जीस्त कहते हैं,
एक रोटी का मामला तो था ..!

नफ़रतें प्यार में बदलीं न कभी ..
अच्छा खासा घुला मिला तो था ..!

बिन पिये रिन्द का यूँ लौट आना ..?
आज मैखाना भी खुला तो था …!
“आशुतोष त्रिपाठी”