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फिर वो कहानी याद आयी


लो फिर वो कहानी याद आई ,
हर बात पुरानी याद आई ।

वो खेल पुराने याद आये ,
गलियाँ वो सुहानी याद आई ।

वो हरे भरे खेतों में जब गेहूँ की बालियाँ हसती थीं
हम नन्हें बच्चों की टोली जब उनमें जाकर छिपती थीं ।
सरसों के पीले फूलों की वो बाग़ सुहानी याद आई ..

वो दादी माँ की गोद में जब हम सर रखकर सो जाते थे,
कुछ काँपते से जब हाथ उनके जो बालों में फिर जाते थे ।
जन्नत से हसीन माँ के आँचल की छाँव सुहानी याद आई ….

वो खट्टे आमों पर ढेले बरसाती बच्चों की टोली
वो गाती कोयल जामुन पर वो मोर पपीहों की टोली।
वो बाँस के झुरमुट में जुगनुओं की मनमानी याद आई. ….

कितना अच्छा होता फिर से एक बार वो दिन वापस आता
इस समझौते के जीवन में कुछ पल तो खुद को जी पाता ?
पर सपना सा सब लगता है,
अब कहाँ वो दिन फिर आएगा !
जो फिर से गांव की झोली में बचपन के दिन दे जाएगा ………….।

”आशुतोष”

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बावरा मन

बावरा है मेरे मन तू ::::
बावरा है मेरे मन तू , तुझको क्या कुछ ज्ञात है ?
तू अभी कच्चा खिलाडी सारा जग निष्णात है !
भावनाओं के लिए कोई जगह खाली नहीं ,
स्वार्थपरता में यहां डूबा हुआ हर गात है !
रोज मानवता यहां सूली चढाई जा रही न्याय की हर रोज अब हस्ती मिटाई जा रही,
झूठ , मक्कारी की जै-जैकार होती रोज है ,
आज अच्छाई उठाती, इन सभी का बोझ है ।
राह पर जीवन की ‘राही’ हाँफता-सा चल रहा
सत्य की राहों पे चल कर पाँव उसका जल रहा
वो मजे से जा रहा है झूठ जिसके साथ है !
तू अभी कच्चा खिलाडी सारा जग निष्णात है!
बावरा है मेरे मन तू ,:

”आशुतोष ”

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बड़प्पन


बचपन से किसको प्रेम नहीं !
कौन जल्दी बड़ा होना चाहता है !!
किन्तु अपेक्षाएँ लोगों की,और तुलनाएँ औरों से
कर देती हैं बड़ा; समय से पहले ।

कौन रोता नहीं है छुप छुप कर !
या कि दिल मचलता नहीं है माँ के आंचल को?
किन्तु ज़िम्मेदारियाँ या की विकलताएँ बड़ेपन की ?
कर देती हैं बड़ा समय से पहले, ज़िम्मेदारियाँ या कि विकलताएँ !!

जब कोई छोटा आ जाता है घर में।
तो घोषित हो जाता है स्वतः बड़प्पन !
और थोप – सी दी जाती है- गंभीरता, सहिष्णुता, सूझ-बूझ; न जाने क्या क्या !
और दबा दी जाती हैं, अंतर्मन की चंचलताएँ।
कर देती हैं बड़ा,समय से पहले ज़िम्मेदारियाँ या विकलताएँ !!

उम्र के पहले पड़ाव में भी कभी, कोसों दूर का वनवास; क्या विस्मृत हो जाता है बचपन का उल्लास?
नई, अनजान,वीरान दुनियाँ में चुपचाप; सहन-कर नित्य नए संताप।
चलाने की खातिर घर बार, स्वयं ही मिटना पड़ता है,भुलाकर सुरमय आकांक्षाएं।
कर देती हैं बड़ा समय से पहले, ज़िम्मेदारियाँ या विकलताएँ !!

स्वयं बन कर भी नींव की ईंट, सजाकर घर के कंगूरे, हृदय में अनुभव कर संतुष्टि,
सजाकर सबके सपनों को; समझकर उनको अब अपना, उन्हें अपनाना पड़ता है।
उम्र से पहले ही पडप्पन की चादर ओढ़कर, बड़े का फ़र्ज़ निभाना पड़ता है।
क्योंकि कर देती हैं बड़ा, समय से पहले; ज़िम्मेदारियाँ या विकलताएँ !!
आदरणीय अग्रज को समर्पित🙏
आशुतोष त्रिपाठी।।

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Nazm

है तो सही !

टूटा फूटा मकान, है तो सही ।
अपने घर का गुमान है तो सही।।

रोशनी थोड़ी छन के आती है।
धुँधला सा रौशदान है तो सही !!

सब्र पे सब्र पिए जाता हूँ ।
हाथ में कोई जाम है तो सही !

ज़िल्द को खा चले हैं अब दीमक ।
बिखरे पन्ने तमाम हैं तो सही !

आज वो साथ नहीं है तो क्या !
उसके किस्से तमाम हैं तो सही !!

चलते जाते हैं, सफ़र खत्म नहीं होता है।
शुक्र है साथ कोई राज़दान है तो सही !!

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“याद “

फिर से याद तुम्हारी आयी!
फिर से लाख फसाने लायी।
चार क़दम की रंगरलियां थीं
फिर मीलों तन्हाई …..!
फिर से याद तुम्हारी आयी !
काश मैं उस दिन कह पाता, तुम रुक जाओ,
काश ये समझा पाता तुमको दुनियाँ से ना घबराओ!
पर किंकर्तव्यविमूढ़ हुआ सा रहा देखता जाते तुमको,
पत्थर सा मैं रहा निरखता अविरल नीर बहाते तुमको ।
अब भी मन पर बोझ वही है, जाकर फिर तुम ना आईं !!
फिर से याद तुम्हारी आयी…..

रिक्त पड़ा है जीवन तबसे, जब तुमको था हँसते देखा;
अन्तिम बार वो जब अधरों को लज्जाशील लरज़ते देखा।
किन्तु दोष अब किसका मानूँ , ये मेरी ही नादानी थी,
हाथ तुम्हारा क्यूं कर छोड़ा, जान भी जाती गर जानी थी !!
वही भोगता हूँ अब, “राही” जो नियती है ले आयी….
फिर से याद तुम्हारी आयी…
“आशुतोष त्रिपाठी”

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“दरार”

#दरार #रिश्ते #अपेक्षाएँ

दरार ……!
दरार यूँ ही नहीं पड़ जाती है रिश्तों में !
ज़िम्मेदार होतीं हैं बेवजह की अपेक्षाएँ,आशाएँ,
जो हम थोप देते हैं औरों पर, अपनी इच्छाएँ ।
और देख लेते हैं दिवा स्वप्नों को –
हम बाँध देते हैं जिनसे चुपचाप अपनों को ।।
दरार यूँ ही नही पड़ जाती है रिश्तों में ,।
जब हम पाल लेते हैं मन में सैकड़ों शंकाएँ,
या फिर उलझ जाते हैं , अविश्वास की जड़ों में ।
भूल जाते हैं जब सारा प्रेम क्षणों में ।।
और देखने लगते हैं केवल बुराइयाँ, धीरे धीरे दूर हो जाती हैं सच्चाइयाँ ।
और रह जातें हैं फिर जलते हुए मन , व्यर्थ के जाल में उलझते हुए हम , स्वर्ग से घर को वीराना बना देते हैं ।
ख़ून के रिश्तों को बेगाना बना देते हैं, खून के रिश्तों को बेगाना बना देते हैं ।।
दरार …..

।। आशुतोष त्रिपाठी ।।

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मैं पिता हूँ ..

मैं पिता हूँ !!

शेष जीवन की मेरे अब आ रही है सांध्य वेला।
बोझ काँधों पर उठाए चल रहा था मैं अकेला ।।
झुर्रियां कुछ और गहरी हो रहीं चेहरे की मेरे ।
ख़ुद लगाए पौधों को अब पेड़ बनते देखता हूँ ।।
मैं पिता हूँ…
स्नेह पर मेरे हमेशा फ़िक्र ही हावी रही है। ।
बस ज़रूरत ही निभी है, ख़्वाहिशें बाकी रहीं है।
एक घर को जोड़ने में, मैं कभी टूटा या बिखरा ।
किन्तु सागर बन, ग़मो को शांत हो पीता रहा हूँ।
मैं पिता हूँ…..

अनगिनत कठिनाईयों से रोज़ मैं दम भर लड़ा हूँ।
छत्र बनकर आतपों से और शीतों से लड़ा हूँ ।।
मैं नहीं कहता कि है उपकार कुछ तुम पर भी मेरा।
किन्तु तुमको ही समर्पित – सा रहा जीवन है मेरा।
आज शायद कुछ उम्मीदों से मैं तुमको देखता हूँ!!
मैं पिता हूँ…..
तुम बुलंदी पर रहो कोशिश हमेशा की है मैंने।
ईंट बनकर नींव की तुमको दुआएँ दी हैं मैंने ।।
और कुछ ख्वाहिश नहीं आदर्श मेरे तुम समझना !!
तुम हो आनेवाले पल ! और मैं वो हूँ जो जा चुका हूँ ।।
मैं पिता हूँ……..

पूज्य पिताजी को समर्पित 🙏
आशुतोष त्रिपाठी !!

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चल अकेला…..

अनवरत चलता चला जा पंथ है, जिस ओर तेरा।
पाँव अब रुकने न पाएँ, रात हो या हो सवेरा।
मार्ग में बिल्कुल अकेला भी कभी, शायद रहे तू।
हो कि छाया भी तेरी, जो छोड़ जाए साथ तेरा ।
किन्तु रुकना मत पथिक, चाहे पड़ें सौ कष्ट सहने।
और हो कितना भी दुस्तर,या कि दुर्गम मार्ग तेरा।
अनगिनत आतप हों या, हिमपात हो राहों में तेरी।
किन्तु चलना ही पड़ेगा, बज गई जब युद्ध-भेरी ।
दीनता का है नहीं क्षण, ये अमित पुरुषार्थ का है।
चाँद हो पूनम का, या फिर, हो अमावस निशि अंधेरी।
बन स्वयं आलोक अपना, मार्ग आलोकित बना ले।
अब उठा भुजदंड अपने, ये ज़माने को बता दे ।
जिनमें है साहस भरा, वो काल से भी क्यों डरेगा?
बिन किये वो लक्ष्य-प्राप्ति न थकेगा न रुकेगा।
बिन किये वो लक्ष्य-प्राप्ति न थकेगा न रुकेगा ।।

आशुतोष त्रिपाठी

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ख्वाबों के सुनहरे पन्नों से…….

ख्वाबों के सुनहरे पन्नों से, कुछ वक्त तलाशा; सोचा! फिर खामोश रह गया ।
आखिर क्या मैने पाया है ? जीवन के बीते पन्नों में क्या कोई सुनहरी छाया है!
जो स्वर्णिम सी हो चमक उठे, मेरा मन फिर से चहक उठे।

पर ऐसा किंचित हो न सका आशा तरु पुष्पित हो न सका। जीवन नद में बहता ही रहा, सौ सौ आतप सहता ही रहा ।
भावुकता के तूफानों में, बागों में कभी वीरानों में।
रुकता भी गया, चलता भी गया , सुनता भी गया, कहता भी गया ।।
ख्वाबों के सुनहरे पन्नों से …..
तंद्रा से जब बाहर आया खुद को वीरान खड़ा पाया, फिर सोचा …
बिन किये कहाँ कुछ होता है,
हर कोई स्वप्न पिरोता है,
पर हार वही बन पाता है, जो पुष्प स्वयं बिंध जाता है!
ख्वाबों के सुनहरे पन्नों से ……..

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माँ तुम पूरी मानवता हो …….

तुम केवल एक शरीर नहीं माँ !
तुम पूरी मानवता हो ।
जीवन यदि सुंदर उपवन है तो
तुम इसकी सुंदरता हो! तुम केवल एक शरीर नहीं माँ तुम पूरी मानवता हो !!

जीवन के कोमल अंकुर को तुमने एक नया वितान दिया ।
और अपने रक्त से सींच सींच कर इसको धवल विहान दिया ।।
वो भी बिल्कुल अनपेक्षित!,तुम साक्षात धैर्य, वत्सलता हो !!
माँ तुम पूरी मानवता हो !

होकर तुम स्वयं तिरस्कृत भी, सेवा और स्नेह का सागर हो.
तुम स्वयं रिक्त सी होकर भी , अप्रतिम ममता की गागर हो।
जिससे सदैव बस प्रेम बहे माँ तुम ऐसी निर्झरिणी हो ।
इस कष्ट भरे जीवन नद की माँ केवल तुम ही तरणी हो !!
है किंतु बहोत दुर्भाग्यपूर्ण हे माँ तुम आज तिरस्कृत हो।
जिनको तुमने जीवन बाँटा उनसे इस भाँति पुरस्कृत हो ।
वो अपने पत्नी बच्चों को ही बस कुटुम्ब हैं मान रहे ।
और तुम सनाथ होकर, अनाथ आश्रम जाने को शापित हो ।।
फिर भी तुम कुपित नहीं होती? साक्षात क्षमा की देवी सी! माँ तुम खुद बोलो तुम क्या हो ??!!
माँ तुम बस एक शरीर नहीं हो !! तुम पूरी मानवता हो !!
हाँ तुम पूरी मानवता हो !!