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मैं बोलूँगा …….

मैं बोलूँगा …..
अपने अन्तर्मन को आखिर; कब तक मैं दबा के सो लूँगा मैं बोलूँगा ।।

मैंने बस दिन भर काम किया, फिर रात हुई आराम किया !
केवल अपने बारे में ही, सोचा! अपना कल्याण किया ।
सोचा पहले खुद बन जाऊँ! फिर देश का दामन धो लूँगा मैं बोलूँगा !!

अब तक निश्चिन्त रहा मैं भी, अपना भविष्य उज्ज्वल होगा।
यह देश था चिड़िया सोने की, फिर आज नहीं तो कल होगा ।।
फिर मैं भी इसमें रह कर के,शायद कुछ रत्न पिरो लूँगा ! मैं बोलूँगा !!

कश्मीर में नरसंहार हुआ , चुप बैठा था मैं मौन रहा
बंगाल में हाहाकार मची, कुछ दुखी हुआ फिर भूल गया।
कट गए जवानों के सर तब , सोचा की अब कुछ बोलूँगा , में बोलूँगा ।।

 

वो देश मे बैठे दीमक धीरे धीरे देश को चाट गए,
मैं लगा रहा चुपचाप यहाँ दो वक्त की रोटी लाने में।
जिनको सौंपा इसका भविष्य , वो रहे लूटने खाने में।।
जब कुछ भी नही बचेगा तब-क्या मैं अवशेष टटोलूँगा? मैं बोलूँगा।।

मैं जाग गया तुम भी जागो अपने मतलब पे मत भागो, कुछ आँखे अपनी खोलो तुम!
आखिर अब तो कुछ बोलो तुम ! “संघे शक्तिः” का आर्ष मंत्र समवेत स्वरों में बोलो तुम!!
अब तुम अपनी आँखें खोलो, मैं अपनी आंखें खोलूँगा! मैं बोलूँगा !!
आखिर अपने अंतर्मन को कब तक मैं दबा कर सो लूँगा ?
मैं बोलूँगा !!

 

 

 

 

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क्या बदल गए हैं हम ?

 

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नर नाहर में अब क्या अंतर

नर नाहर में अब क्या अन्तर !!

नाहर निज क्षुधा तृप्ति के वश, होकर मृगया कर लेता है।
पर मानव क्यों दानव बनकर निर्मम हत्या कर देता है !

क्या यही धर्म का पालन है ? क्या यही सृष्टि का नियमन है ?
या यह तृष्णा की साजिश है, या हैवानों की मजलिस है !

क्यों मानव ही मानव को अब नित नई यातना देता है?
सब एक पिता की सन्तति हैं! क्यों यह विस्मृत कर देता है।

क्यों सृष्टि-स्वरूपा आदि शक्ति कन्या भोग्या बन जाती है? 
निर्दोष, दीन मानवता अब दर- दर की ठोकर खाती है ।
क्यों नन्हे मासूमों से भी , बर्बरता बरती जाती है?
पाशविक और कुत्सित मनसा, क्यों दिन दिन बढ़ती जाती है !!

क्या यही प्रगति का लक्षण है? क्या यही सभ्यता है युग की ?
क्या यही मार्ग है उन्नति का ? क्या यही नियति है इस जग की !

अब भी यदि नहीं रुका सब तो ब्रह्मांड हमें धिक्कारेगा !
फिर ‘मानव’ क्या ”दानव” कह भी 
क्या ! कोई हमें पुकारेगा ?

“आशुतोष त्रिपाठी “

 

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मानव

उन्नति के पथ पर !
सदियों पूर्व चला था मानव ।
कितने झंझावातों को ,
अगणित शीत- आतपों को,
सहता ,चीरता- नद सागर को,
करता सुगम पर्वतों को!!
किन्तु, किंचित अब भटक गया, तृष्णा-लिप्सा में अटक गया ।
आज भोला सा यह मानव,
अग्रसर बनने को दानव,
छोड़कर स्वेच्छा से निज धर्म
भूलकर अब सारे सत्कर्म,
हुआ अनुगामी अब किसका
स्वयं ही विद्ध किया निज मर्म ।
प्रकृति में जन्मा, पला-बढ़ा,
दूर उससे ही किन्तु खड़ा
क्षत-विक्षत करता है देखो
शश्यवसना इस धरती को ।
स्वयं को देता है संताप,
नित्य- प्रति करता है ये पाप,
मृग पिपासा के वश होकर,
चेतना अब सारी खोकर।
तुच्छ माया के वश होकर,
कौन सा करता ये आलाप?
क्यों प्रकृति का लेता यह शाप।
प्रगति आवश्यक है कितनी,
करेगा निर्णय इसका कौन !
प्रगति क्या है, कृत्रिम जीवन?
और केवल क्या निज पोषण!
नहीं! यह वसुधा अपनी है,
सदृश माँ के पोषण करती,
हमें निशि दिन धारण करती।
हमारा भी है यह कर्तव्य,
करें इसका भी हम पोषण,
सभी जीवों में सबसे श्रेष्ठ,हैं हम सब मानव प्राणि-विशेष !!
रखें हम मिलकर इसका मान,
बनें हम फिर से जीव महान !!
बनें हम फिर से जीव महान !!
“आशुतोष त्रिपाठी “

 

 

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श्रीकृष्ण

वो नटवर- नागर हो चाहे, उसे नाम मिला हो गोपाला।
वो प्यारा सबका था क्योंकि, उसने भी पिया विष का प्याला :-
सीमित संसाधन में पलकर, जो विश्व गुरु बन बैठा हो ।
कितना अदम्य साहस होगा, जो दुनिया से लड़ बैठा हो –
आपदा से लड़ने ख़ातिर जो, हर क्षण सहर्ष तैयार रहा।
उस मोहन को सौ बार नमन, जिस पर मोहित सँसार रहा ।।
पीड़ितों, शोषितों, की ख़ातिर, जो एक मात्र आलम्ब रहा।
जब चरम पे अपने था अधर्म, वह एक धर्म-स्तम्भ रहा ।।
“जैसे को तैसा” – ये नारा, था सर्वप्रथम कान्हा ने दिया ।
सौ सौ विपत्तियों में घिर कर भी, लोगों का कल्याण किया ।।
वो सबका प्यारा था क्योंकि, सबकी सेवा में तत्पर था ।
सब उसे पूजते थे कि वो, सारे देवों से बढ़कर था ।।
वरना ये मानव -जाति- सकल, केवल अपना हित करती है।
यह बिना स्वार्थ के कहाँ किसी को यूँ ही पूजा करती है ।।
है निःसंदेह शाश्वत सत्य, वह मनुज नहीं अवतार ही था ।
हम जिसे आज भी ध्याते हैं साक्षात विष्णु- साकार ही था ।।
कुछ कामातुर कवियों ने उन्हें, एक रास रचैया कह डाला।
निर्लज्जों ने उन्हें चीर- चोर, और कुटिल कन्हैया कह डाला ।।
यह पुनर्विचारणीय है ! हम किस रूप में जानें कान्हा को।
भोगी,या विलासी, धर्मबिन्दु, या योगी मानें कान्हा को ।।
जिसकी कुछ बातें गीता में जीवन के पथ की प्रदर्शक हैं ।
उनके जीवन पर टिप्पणी में, कुछ कहना क्या आवश्यक है ?
हम खुद थोड़ा सा विचार करें, कुछ मत उनके स्वीकार करें ।
तो विश्व-गुरु होवे भारत, यदि हम कुछ पुनर्विचार करें ।।

श्रीकृष्ण जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनाएँ !!
आशुतोष त्रिपाठी ।।

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मित्रता

  1. मित्रता एक आशा है, निराश मन की ।
    मित्रता किलकारियां हैं सूनेपन की ।।
    मित्रता में कुछ भी अनपेक्षित नहीं है ।
    मित्रता माधुर्य है चौदह भुवन की ।।
    शाश्वत संबंध केवल मित्रता है,
    आत्मिक आनंद केवल मित्रता है।
    जबकि; हर रिश्ता यहाँ पर स्वार्थ का है,
    किन्तु, बस निःस्वार्थ केवल मित्रता है ।।
    कोई शिकवा ना गिला है मित्रता में ,
    अनवरत सहयोग, केवल मित्रता है।।
    और सब रिश्ते स्वयं बनकर मिले हैं ,
    मधुरतम संयोग बस, ये मित्रता है ।।

    आशुतोष त्रिपाठी !!

     

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दरार

दरार ……!
दरार यूँ ही नहीं पड़ जाती है रिश्तों में !
ज़िम्मेदार होतीं हैं बेवजह की अपेक्षाएँ,आशाएँ,
जो हम थोप देते हैं औरों पर, अपनी इच्छाएँ ।
और देख लेते हैं दिवा स्वप्नों को –
हम बाँध देते हैं जिनसे चुपचाप अपनों को ।।
दरार यूँ ही नही पड़ जाती है रिश्तों में ,।
जब हम पाल लेते हैं मन में सैकड़ों शंकाएँ,
या फिर उलझ जाते हैं , अविश्वास की जड़ों में ।
भूल जाते हैं जब सारा प्रेम क्षणों में ।।
और देखने लगते हैं केवल बुराइयाँ, धीरे धीरे दूर हो जाती हैं सच्चाइयाँ ।
और रह जातें हैं फिर जलते हुए मन , व्यर्थ के जाल में उलझते हुए हम , स्वर्ग से घर को वीराना बना देते हैं ।
ख़ून के रिश्तों को बेगाना बना देते हैं, खून के रिश्तों को बेगाना बना देते हैं ।।

।। आशुतोष त्रिपाठी ।।

 

 

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मुसकान

कुछ बात अजब सी होती है बच्चों की मुस्कान में ।
उनकी अपनी ही दुनिया है , जहाँ कल्पित पात्र विचरते हैं-
‌इस दुनिया की सच्चाई से, सच्ची वो कल्पित दुनिया है ।
जहाँ कोई झूठा दम्भ नहीं, जहा कोई लोभ प्रपंच नहीं ।
बस अपने मन की करना है , बस अपने मन की सुनना है।
वहाँ कोई ऊँच और नीच नही , सब एक से हैं सब बालसखा ।
न ही भविष्य की चिंता है , न भूत से कोई शिकवा गिला ।
बस आज ही उनका सब कुछ है , और आज में ही वो जीते हैं।
न ही वो हँसी छुपाते हैं और न ही आंसू पीते हैं ।।

लेकिन हम उनकी दुनिया को अपनी दुनिया से मिलाने की,
हर संभव कोशिश करते हैं उनको अपना सा बनाने की।
उनको भी हम इस दुनिया की घुड़दौड़ में शामिल करने का ,
सारा प्रयास कर लेते हैं इस दौर में शामिल करने का ।।
शायद विचार के लायक है , ये एक ज्वलंत प्रश्न मेरा –

किस ओर को जाना है हमको , किस लक्ष्य की खातिर यह फेरा-
दिन रात लगाते हैं हम सब , किस बात ने हमको है घेरा ।
धरती पर आने का मकसद क्या केवल अर्थ कमाना है ?
या आपस मे यूँ लड़ भिड़ कर , मारना है और मर जाना है ।।
यह तथ्य विचारणीय होगा , किस ओर चले हैं हम मानव।
यह मार्ग प्रगति का है या फिर, हम आज चले बनने दानव ।।
“आशुतोष त्रिपाठी”

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कुछ गीत गुनगुनाए कुछ फ़लसफ़े लिखे ।

 

कुछ गीत गुनगुनाए कुछ फ़लसफ़े लिखे ।
तेरे लिए ए ज़िन्दगी कितने जतन किये ।।

लाखों की भीड़ में जो अपना लगे कोई ।
उस शख्स के बिना भला कैसे कोई जिए ।।

दिन रात तराशा था उस बुत को, दिल ही दिल में ।
लेकिन अब अजनबी सा वो क्यों है मेरे लिए ।।

दस्तूर है ये कोई , या बदगुमां सी साजिश ।
हर कोई जी रहा है , लेकिन बिना जिए ।।