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चल अकेला…..

अनवरत चलता चला जा पंथ है, जिस ओर तेरा।
पाँव अब रुकने न पाएँ, रात हो या हो सवेरा।
मार्ग में बिल्कुल अकेला भी कभी, शायद रहे तू।
हो कि छाया भी तेरी, जो छोड़ जाए साथ तेरा ।
किन्तु रुकना मत पथिक, चाहे पड़ें सौ कष्ट सहने।
और हो कितना भी दुस्तर,या कि दुर्गम मार्ग तेरा।
अनगिनत आतप हों या, हिमपात हो राहों में तेरी।
किन्तु चलना ही पड़ेगा, बज गई जब युद्ध-भेरी ।
दीनता का है नहीं क्षण, ये अमित पुरुषार्थ का है।
चाँद हो पूनम का, या फिर, हो अमावस निशि अंधेरी।
बन स्वयं आलोक अपना, मार्ग आलोकित बना ले।
अब उठा भुजदंड अपने, ये ज़माने को बता दे ।
जिनमें है साहस भरा, वो काल से भी क्यों डरेगा?
बिन किये वो लक्ष्य-प्राप्ति न थकेगा न रुकेगा।
बिन किये वो लक्ष्य-प्राप्ति न थकेगा न रुकेगा ।।

आशुतोष त्रिपाठी

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ख्वाबों के सुनहरे पन्नों से…….

ख्वाबों के सुनहरे पन्नों से, कुछ वक्त तलाशा; सोचा! फिर खामोश रह गया ।
आखिर क्या मैने पाया है ? जीवन के बीते पन्नों में क्या कोई सुनहरी छाया है!
जो स्वर्णिम सी हो चमक उठे, मेरा मन फिर से चहक उठे।

पर ऐसा किंचित हो न सका आशा तरु पुष्पित हो न सका। जीवन नद में बहता ही रहा, सौ सौ आतप सहता ही रहा ।
भावुकता के तूफानों में, बागों में कभी वीरानों में।
रुकता भी गया, चलता भी गया , सुनता भी गया, कहता भी गया ।।
ख्वाबों के सुनहरे पन्नों से …..
तंद्रा से जब बाहर आया खुद को वीरान खड़ा पाया, फिर सोचा …
बिन किये कहाँ कुछ होता है,
हर कोई स्वप्न पिरोता है,
पर हार वही बन पाता है, जो पुष्प स्वयं बिंध जाता है!
ख्वाबों के सुनहरे पन्नों से ……..

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माँ तुम पूरी मानवता हो …….

तुम केवल एक शरीर नहीं माँ !
तुम पूरी मानवता हो ।
जीवन यदि सुंदर उपवन है तो
तुम इसकी सुंदरता हो! तुम केवल एक शरीर नहीं माँ तुम पूरी मानवता हो !!

जीवन के कोमल अंकुर को तुमने एक नया वितान दिया ।
और अपने रक्त से सींच सींच कर इसको धवल विहान दिया ।।
वो भी बिल्कुल अनपेक्षित!,तुम साक्षात धैर्य, वत्सलता हो !!
माँ तुम पूरी मानवता हो !

होकर तुम स्वयं तिरस्कृत भी, सेवा और स्नेह का सागर हो.
तुम स्वयं रिक्त सी होकर भी , अप्रतिम ममता की गागर हो।
जिससे सदैव बस प्रेम बहे माँ तुम ऐसी निर्झरिणी हो ।
इस कष्ट भरे जीवन नद की माँ केवल तुम ही तरणी हो !!
है किंतु बहोत दुर्भाग्यपूर्ण हे माँ तुम आज तिरस्कृत हो।
जिनको तुमने जीवन बाँटा उनसे इस भाँति पुरस्कृत हो ।
वो अपने पत्नी बच्चों को ही बस कुटुम्ब हैं मान रहे ।
और तुम सनाथ होकर, अनाथ आश्रम जाने को शापित हो ।।
फिर भी तुम कुपित नहीं होती? साक्षात क्षमा की देवी सी! माँ तुम खुद बोलो तुम क्या हो ??!!
माँ तुम बस एक शरीर नहीं हो !! तुम पूरी मानवता हो !!
हाँ तुम पूरी मानवता हो !!

 

 

 

 

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मैं बोलूँगा …….

मैं बोलूँगा …..
अपने अन्तर्मन को आखिर; कब तक मैं दबा के सो लूँगा मैं बोलूँगा ।।

मैंने बस दिन भर काम किया, फिर रात हुई आराम किया !
केवल अपने बारे में ही, सोचा! अपना कल्याण किया ।
सोचा पहले खुद बन जाऊँ! फिर देश का दामन धो लूँगा मैं बोलूँगा !!

अब तक निश्चिन्त रहा मैं भी, अपना भविष्य उज्ज्वल होगा।
यह देश था चिड़िया सोने की, फिर आज नहीं तो कल होगा ।।
फिर मैं भी इसमें रह कर के,शायद कुछ रत्न पिरो लूँगा ! मैं बोलूँगा !!

कश्मीर में नरसंहार हुआ , चुप बैठा था मैं मौन रहा
बंगाल में हाहाकार मची, कुछ दुखी हुआ फिर भूल गया।
कट गए जवानों के सर तब , सोचा की अब कुछ बोलूँगा , में बोलूँगा ।।

 

वो देश मे बैठे दीमक धीरे धीरे देश को चाट गए,
मैं लगा रहा चुपचाप यहाँ दो वक्त की रोटी लाने में।
जिनको सौंपा इसका भविष्य , वो रहे लूटने खाने में।।
जब कुछ भी नही बचेगा तब-क्या मैं अवशेष टटोलूँगा? मैं बोलूँगा।।

मैं जाग गया तुम भी जागो अपने मतलब पे मत भागो, कुछ आँखे अपनी खोलो तुम!
आखिर अब तो कुछ बोलो तुम ! “संघे शक्तिः” का आर्ष मंत्र समवेत स्वरों में बोलो तुम!!
अब तुम अपनी आँखें खोलो, मैं अपनी आंखें खोलूँगा! मैं बोलूँगा !!
आखिर अपने अंतर्मन को कब तक मैं दबा कर सो लूँगा ?
मैं बोलूँगा !!

 

 

 

 

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क्या बदल गए हैं हम ?

 

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नर नाहर में अब क्या अंतर

नर नाहर में अब क्या अन्तर !!

नाहर निज क्षुधा तृप्ति के वश, होकर मृगया कर लेता है।
पर मानव क्यों दानव बनकर निर्मम हत्या कर देता है !

क्या यही धर्म का पालन है ? क्या यही सृष्टि का नियमन है ?
या यह तृष्णा की साजिश है, या हैवानों की मजलिस है !

क्यों मानव ही मानव को अब नित नई यातना देता है?
सब एक पिता की सन्तति हैं! क्यों यह विस्मृत कर देता है।

क्यों सृष्टि-स्वरूपा आदि शक्ति कन्या भोग्या बन जाती है? 
निर्दोष, दीन मानवता अब दर- दर की ठोकर खाती है ।
क्यों नन्हे मासूमों से भी , बर्बरता बरती जाती है?
पाशविक और कुत्सित मनसा, क्यों दिन दिन बढ़ती जाती है !!

क्या यही प्रगति का लक्षण है? क्या यही सभ्यता है युग की ?
क्या यही मार्ग है उन्नति का ? क्या यही नियति है इस जग की !

अब भी यदि नहीं रुका सब तो ब्रह्मांड हमें धिक्कारेगा !
फिर ‘मानव’ क्या ”दानव” कह भी 
क्या ! कोई हमें पुकारेगा ?

“आशुतोष त्रिपाठी “

 

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मानव

उन्नति के पथ पर !
सदियों पूर्व चला था मानव ।
कितने झंझावातों को ,
अगणित शीत- आतपों को,
सहता ,चीरता- नद सागर को,
करता सुगम पर्वतों को!!
किन्तु, किंचित अब भटक गया, तृष्णा-लिप्सा में अटक गया ।
आज भोला सा यह मानव,
अग्रसर बनने को दानव,
छोड़कर स्वेच्छा से निज धर्म
भूलकर अब सारे सत्कर्म,
हुआ अनुगामी अब किसका
स्वयं ही विद्ध किया निज मर्म ।
प्रकृति में जन्मा, पला-बढ़ा,
दूर उससे ही किन्तु खड़ा
क्षत-विक्षत करता है देखो
शश्यवसना इस धरती को ।
स्वयं को देता है संताप,
नित्य- प्रति करता है ये पाप,
मृग पिपासा के वश होकर,
चेतना अब सारी खोकर।
तुच्छ माया के वश होकर,
कौन सा करता ये आलाप?
क्यों प्रकृति का लेता यह शाप।
प्रगति आवश्यक है कितनी,
करेगा निर्णय इसका कौन !
प्रगति क्या है, कृत्रिम जीवन?
और केवल क्या निज पोषण!
नहीं! यह वसुधा अपनी है,
सदृश माँ के पोषण करती,
हमें निशि दिन धारण करती।
हमारा भी है यह कर्तव्य,
करें इसका भी हम पोषण,
सभी जीवों में सबसे श्रेष्ठ,हैं हम सब मानव प्राणि-विशेष !!
रखें हम मिलकर इसका मान,
बनें हम फिर से जीव महान !!
बनें हम फिर से जीव महान !!
“आशुतोष त्रिपाठी “

 

 

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श्रीकृष्ण

वो नटवर- नागर हो चाहे, उसे नाम मिला हो गोपाला।
वो प्यारा सबका था क्योंकि, उसने भी पिया विष का प्याला :-
सीमित संसाधन में पलकर, जो विश्व गुरु बन बैठा हो ।
कितना अदम्य साहस होगा, जो दुनिया से लड़ बैठा हो –
आपदा से लड़ने ख़ातिर जो, हर क्षण सहर्ष तैयार रहा।
उस मोहन को सौ बार नमन, जिस पर मोहित सँसार रहा ।।
पीड़ितों, शोषितों, की ख़ातिर, जो एक मात्र आलम्ब रहा।
जब चरम पे अपने था अधर्म, वह एक धर्म-स्तम्भ रहा ।।
“जैसे को तैसा” – ये नारा, था सर्वप्रथम कान्हा ने दिया ।
सौ सौ विपत्तियों में घिर कर भी, लोगों का कल्याण किया ।।
वो सबका प्यारा था क्योंकि, सबकी सेवा में तत्पर था ।
सब उसे पूजते थे कि वो, सारे देवों से बढ़कर था ।।
वरना ये मानव -जाति- सकल, केवल अपना हित करती है।
यह बिना स्वार्थ के कहाँ किसी को यूँ ही पूजा करती है ।।
है निःसंदेह शाश्वत सत्य, वह मनुज नहीं अवतार ही था ।
हम जिसे आज भी ध्याते हैं साक्षात विष्णु- साकार ही था ।।
कुछ कामातुर कवियों ने उन्हें, एक रास रचैया कह डाला।
निर्लज्जों ने उन्हें चीर- चोर, और कुटिल कन्हैया कह डाला ।।
यह पुनर्विचारणीय है ! हम किस रूप में जानें कान्हा को।
भोगी,या विलासी, धर्मबिन्दु, या योगी मानें कान्हा को ।।
जिसकी कुछ बातें गीता में जीवन के पथ की प्रदर्शक हैं ।
उनके जीवन पर टिप्पणी में, कुछ कहना क्या आवश्यक है ?
हम खुद थोड़ा सा विचार करें, कुछ मत उनके स्वीकार करें ।
तो विश्व-गुरु होवे भारत, यदि हम कुछ पुनर्विचार करें ।।

श्रीकृष्ण जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनाएँ !!
आशुतोष त्रिपाठी ।।

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वादा

काम मुश्किल था बड़ा फिर भी निभाया हमने,
कई बिखरे हुए रिश्तों को सजाया हमने ।।

धूल थी जम चुकी ज़ज़्बात मरने वाले थे,
एक कोने में पड़े उनको उठाया हमने ।।

हर कोई आया, मिला और ज़ख्म देके गया ,
जिसको हमदर्द समझ पास बिठाया हमने ।।

बारहा बिखरे भी हम ताश के घर की मानिंद ,
फिर भी रिश्तों को सलीके से सजाया हमने ।।

अश्क़ पीते गए , ज़ख्मों को खुला छोड़ दिया ,
मुसकराहट में भी सौ दर्द छुपाया हमने ।।

हर एक वादा चुभा सौ बार जिगर में “राही”
मिट गए खुद मगर वादों को निभाया हमने ।।

आशुतोष त्रिपाठी !!

 

 

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मित्रता

  1. मित्रता एक आशा है, निराश मन की ।
    मित्रता किलकारियां हैं सूनेपन की ।।
    मित्रता में कुछ भी अनपेक्षित नहीं है ।
    मित्रता माधुर्य है चौदह भुवन की ।।
    शाश्वत संबंध केवल मित्रता है,
    आत्मिक आनंद केवल मित्रता है।
    जबकि; हर रिश्ता यहाँ पर स्वार्थ का है,
    किन्तु, बस निःस्वार्थ केवल मित्रता है ।।
    कोई शिकवा ना गिला है मित्रता में ,
    अनवरत सहयोग, केवल मित्रता है।।
    और सब रिश्ते स्वयं बनकर मिले हैं ,
    मधुरतम संयोग बस, ये मित्रता है ।।

    आशुतोष त्रिपाठी !!