नर नाहर में अब क्या अन्तर !!
नाहर निज क्षुधा तृप्ति के वश, होकर मृगया कर लेता है।
पर मानव क्यों दानव बनकर निर्मम हत्या कर देता है !
क्या यही धर्म का पालन है ? क्या यही सृष्टि का नियमन है ?
या यह तृष्णा की साजिश है, या हैवानों की मजलिस है !
क्यों मानव ही मानव को अब नित नई यातना देता है?
सब एक पिता की सन्तति हैं! क्यों यह विस्मृत कर देता है।
क्यों सृष्टि-स्वरूपा आदि शक्ति कन्या भोग्या बन जाती है?
निर्दोष, दीन मानवता अब दर- दर की ठोकर खाती है ।
क्यों नन्हे मासूमों से भी , बर्बरता बरती जाती है?
पाशविक और कुत्सित मनसा, क्यों दिन दिन बढ़ती जाती है !!
क्या यही प्रगति का लक्षण है? क्या यही सभ्यता है युग की ?
क्या यही मार्ग है उन्नति का ? क्या यही नियति है इस जग की !
अब भी यदि नहीं रुका सब तो ब्रह्मांड हमें धिक्कारेगा !
फिर ‘मानव’ क्या ”दानव” कह भी
क्या ! कोई हमें पुकारेगा ?
“आशुतोष त्रिपाठी “